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सोमवार, 31 अगस्त 2020
व्यापार चलाने को कर्ज लिया था और लॉकडाउन लग गया, फाइनेंसर बाउंसर भेजने लगा, वो गाली देते और घर तबाह करने की धमकी देते थे
दोनों भाइयों में बड़ा प्यार था। आस-पड़ोस से लेकर नाते-रिश्तेदार भी उन्हें राम-लक्ष्मण कहते थे। जो बड़ा कहता, वही छोटा वाला करता। हर काम में साथ-साथ। सुबह, शाम और दोपहर बस काम-काम और काम। इसी काम ने मेरे दोनों लालों को हमसे छीन लिया। दोनों भाई एक साथ चले गए। ये भी नहीं सोचा कि उनके बाद हमारा क्या होगा? बच्चों का क्या होगा?’
इतना कहते-कहते 78 साल के अधेश्वर दास गुप्ता कांपने लगते हैं। बगल में खड़ी उनकी पत्नी सहारे के लिए हाथ आगे बढ़ाती हैं। उनकी पत्नी का नाम उषा है और उम्र 72 साल है। अधेश्वर दास के होंठ कंपकपा रहे हैं। वो कुछ बोल रहे हैं, लेकिन गले से आवाज नहीं निकल रही। उनकी सूनी आंखें सामने दीवार पर टिकी हैं। सुधबुध गंवा चुके पति को सहारा देकर बैठाने के बाद उषा कहती हैं, 'बच्चों को हमारी इतनी भी चिंता नहीं करनी चाहिए थी। वो डरते थे कि कहीं पैसा मांगने वाले लोग हमारे बूढ़े मां-बाप को ना कुछ बोल दें। इज्जत की फिक्र थी। कितने कष्ट में रहे होंगे हमारे लाल कि एक साथ फांसी लगा ली?'
इतना कहकर वो आंचल से अपना चेहरा ढंक लेती हैं और भीतर से सिसकियों की आवाज आने लगती है। उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि घर के भीतर खेल रहे दो छोटे-छोटे बच्चों को फिलहाल वो सब पता ना चले, जिसे सहने और समझने लायक उनकी उम्र नहीं है। वो आंसू रोकने की कोशिश करती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि रोने की आवाज से पास बैठे अधेश्वर दास की तबीयत और खराब हो जाएगी।
दिल्ली के चांदनी चौक में गली बेरी के आखिरी छोर पर अपने पुश्तैनी मकान में रह रहे इन दो बुजुर्गों की जिंदगी के सारे रंग 26 अगस्त की दोपहर को गायब हो गए। 25 अगस्त की रात तक ‘हैप्पी फैमिली’ के हर पैमाने पर खरा उतरने वाले इस परिवार को अगले दिन से दुःख, संताप और शोक के काले बादलों ने घेर लिया। कारण, इस परिवार के दो कमाऊ पूतों ने एक साथ फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
47 साल के अंकित और 42 साल के अर्पित गुप्ता पिछले दस साल से चांदनी चौक के बाजार में कृष्णा ज्वेलर्स नाम की दुकान चलाते थे। दोनों भाई अपने कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे थे। लॉकडाउन के बाद व्यापार में आई मंदी और बढ़ते कर्ज की वजह से इन दोनों भाइयों ने अपनी दुकान में ही फांसी लगा ली।
उस दिन को याद कर उषा गुप्ता एक बार फिर सिसकने लगती हैं। फिर हिम्मत जुटाने के बाद कहती हैं, ‘एक रात पहले हम सब ने साथ में खाना खाया था। वो अपने काम के बारे में ज्यादा बताते नहीं थे, फिर भी इतना तो मालूम था कि परेशान हैं। सुबह दुकान पर जाते हुए रोज की तरह दोनों भाइयों ने हम दोनों के पैर छुए थे। हमें क्या मालूम था कि वो आखिरी बार पैर छू रहे हैं।’
उषा देवी की हिम्मत जवाब दे चुकी है और वो रोने लगती हैं। बगल में बैठे अधेश्वर दास गुप्ता किसी भी सवाल का जवाब देने की हालत में नहीं हैं। कुछ पूछने पर केवल इतना कहते हैं, ‘कुछ समझ नहीं आ रहा। क्या पूछ रहे हैं आप?’
कमरे में इन दोनों के अलावा उषा की भाभी मंजू गुप्ता भी मौजूद हैं, जो परिवार के दूसरे सदस्यों के वास्ते इन्हें चुप हो जाने के लिए कह रही हैं। अपने भांजों को याद करते हुए मंजू कहती हैं, ‘व्यापार चलाने के लिए बच्चों ने कर्ज ले रखा था। फिर लॉकडाउन लग गया। जिससे कर्ज लिया था वो दुकान पर बाउंसर भेजने लगे। गालियां देने लगे और घर-परिवार को भी तबाह करने की बात कहते थे। बच्चे चोर-लफंगे तो थे नहीं कि इस सब से निपट पाते। कुछ नहीं सूझा तो गलत काम कर बैठे।’
परिवार के मुताबिक, दोनों भाइयों ने एक प्राइवेट फाइनेंसर से कर्ज लिया था। लॉकडाउन की वजह से तीन महीने दुकान और फिर काम एकदम बंद हो गया। व्यापार ठप रहा, लेकिन कर्ज देने वाले फाइनेंसर ने अपने पैसों की वसूली के लिए उन्हें फोन पर धमकाना, फिर दुकान पर बाउंसर भेजना और गाली-गलौज करना शुरू कर दिया था। परिवार का तो यहां तक कहना है कि जन्माष्टमी से दो रोज पहले दुकान पर बाउंसरों ने खूब बदतमीजी की। दोनों को गंदी-गंदी गालियां दीं और पैसे न मिलने पर पूरे परिवार को तबाह करने की धमकी दी थी।
अंकित और अर्पित की आत्महत्या ने केवल एक परिवार को बेसहारा नहीं किया है, बल्कि इन दो भाइयों के इस कदम से सिस्टम एक बार फिर बेनकाब हुआ है। घटना के छह दिन बाद तक किसी भी राजनीतिक पार्टी का कोई भी नुमाइंदा इनका हालचाल लेने तक यहां नहीं पहुंचा है।
अविनाश अग्रवाल पिछले बीस साल से दिल्ली-6 में ही अपनी ज्वेलरी शॉप चलाते हैं। प्राइवेट फाइनेंसर से लोन की जरूरत क्यों पड़ी? इस सवाल पर कहते हैं, ‘जाहिर सी बात है। बैंक लोन देता नहीं। मैं व्यापारी हूं। मुझे कल ही कुछ माल उठाना है। माल एक करोड़ रुपए का है। मेरे पास चालीस लाख ही हैं। अब कैसे होगा? क्या एक दिन में सरकारी बैंक मुझे लोन दे देगा? चलो, एक हफ्ते में दे देगा? मेरा जवाब है, नहीं। आप चाहे तो चेक कर लो। अब ऐसे में मुझे पैसे के लिए तो प्राइवेट फाइनेंसर के पास ही जाना होगा। ज्यादा ब्याज भी देना होगा और इसके खतरे अलग हैं, लेकिन रास्ता क्या है?’
चांदनी चौक अपने व्यापार के लिए देशभर में जाना जाता है। यहां बड़ी संख्या में ज्वेलरी का कारोबार भी होता है। सीताराम बाजार में पिछले कई सालों से ज्वेलरी शॉप चला रहे कमल गुप्ता के मुताबिक, सोने का वायदा कारोबार और व्यपारियों में इसे लेकर बढ़ी दिलचस्पी मुख्य वजह है। वो कहते हैं, ‘इसमें कोई दो राय नहीं है कि लॉकडाउन ने कमर तोड़ दी है। सरकार केवल घोषणाएं कर रही है। आज भी हमें बिना गिरवी रखे बैंक एक लाख रुपए का लोन नहीं देता।
चार-पांच रोज भागना होता है सो अलग। लेकिन, इन दोनों के मामले में ‘वायदा बजार’ एक बड़ी वजह है। जो जानकारी मुझे है उसके मुताबिक, दोनों इस काम में लगे हुए थे। जो लोग ये काम करवाते हैं या आपको पैसे देते हैं, वो ही इस तरह से पैसों की वसूली भी करते हैं। इसे आप व्यापारियों का जुआ मानिए। खेलिए। जीते तो ठीक। हार गए तो सब सत्यानाश। पता नहीं सरकार क्यों जुआ खिलवा रही है?
वायदा बाजार मतलब व्यापार की वो जगह जहां वास्तव में न तो कोई दुकान होती है, न ही व्यापारी और न ही कोई ग्राहक। सब इंटरनेट पर होता है। कमल सहित इलाके के कई दूसरे व्यपारी इन दो भाइयों की आत्महत्या के पीछे ‘वायदा बाजार’ को एक मजबूत वजह मानते हैं। वर्ष 2003 से ही इलाके के व्यापारी इस काम में लगे हैं और जल्दी से जल्दी अच्छी कमाई का जरिया मानते हैं। ऐसा नहीं है कि अंकित और अर्पित ही ऐसे व्यापारी थे जो इस ‘बाजार’ में अपनी किस्मत आजमा रहे थे। चांदनी चौक में काम कर रहे ज्यादतर व्यापारी नियमित तौर से ‘वायदा बाजार’ में अपनी किस्मत आजमाते हैं। लेकिन, कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन और इस वजह से व्यापार में आई कमी ने ज्यादातर व्यापारियों के जीवन में अंधेरा फैला दिया है।
एक हजार सदस्यों वाला कूचा महाजनी ज्वेलरी एसोसिएशन चांदनी चौक का सबसे बड़ा ज्वेलर्स एसोसिएशन है। योगेश सिंघल इसके अध्यक्ष हैं और खुद एक बड़ी ज्वेलरी शॉप के मालिक हैं। वो कहते हैं, ‘मेरे पास कई व्यापारियों के फोन आते हैं। कोई लाखों के कर्ज में है तो कोई करोड़ों के। आपको भरोसा नहीं होगा, लेकिन हर व्यापारी की नींद हराम है। जिन दो भाइयों ने आत्महत्या की, उनकी भी यही स्थिति थी। गद्दे पर काम कम हुआ तो मुनाफे के लालच में व्यापारियों ने ‘वायदा बाजार’ का रुख किया। उन पर कर्ज बढ़े और बढ़ते चले गए। कर्ज चुकाने की उनकी क्षमता कम हुई। नोटबंदी से किसी तरह संभले तो लॉकडाउन ने जान निकाल दी।’
अंकित गुप्ता और अर्पित गुप्ता की आत्महत्या के बाद इलाके के व्यापारियों में एक दहशत का माहौल है और ये किसी एक परिवार या एक व्यापारी की बात नहीं है। बहुत से ऐसे व्यापारी हैं, जो गले तक कर्ज में डूबे हुए हैं। वो भी ऐसे वक्त में जब कारोबार पिछले छह महीने से पूरी तरह से ठप है और अगले छह महीने भी ठप ही रहने वाला है। यही वजह है कि कूचा महाजनी ज्वेलर्स एसोसिएशन सितंबर के पहले हफ्ते में अपने सभी सदस्यों के साथ ऑनलाइन मीटिंग करने वाला है और सरकार के सामने व्यापारियों के मन की असुरक्षा को सामने रखने वाला है।
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from Dainik Bhaskar
देश में सबसे ज्यादा दलित और मुसलमान कैदी यूपी में और आदिवासी मध्य प्रदेश की जेलों में बंद हैं, कॉमन जेलों में भीड़, लेकिन महिला जेलें खाली
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने साल 2019 के लिए जेल संबंधित एक रिपोर्ट जारी की है। इसके मुताबिक, देशभर में करीब 4.72 लाख कैदी हैं। इनमें 4.53 लाख पुरुष और 19 हजार 81 महिला कैदी हैं। जिसमें 70 फीसदी तो अंडर ट्रायल हैं, 30 फीसदी ही दोषी हैं। सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में एक लाख कैदी हैं। मध्य प्रदेश में 44 हजार 603 और बिहार में 39 हजार 814 कैदी हैं। 2019 में 18 लाख लोगों को कैद किया गया, जिसमें से 3 लाख लोगों को अभी भी जमानत नहीं मिल सकी है।
रिपोर्ट के मुताबिक, दलित, मुस्लिम और आदिवासी कैदियों की संख्या आबादी में उनके अनुपात से कहीं ज्यादा है। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश में अनुसूचित जाति (एससी) की आबादी 16 फीसदी है, जबकि एनसीआरबी के आंकड़ों की मानें तो 21.7% दोषी दलित जेलों में बंद हैं।
अगर आदिवासियों की बात करें, तो दोषी कैदी 13.6% और 10.5% कैदी अंडर ट्रायल हैं। जबकि, इनकी कुल आबादी देश में 8.6% है। ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले 34.9% दोषी जेलों में कैद हैं, जबकि इनकी आबादी 40% के आसपास है। जबकि, बाकी दूसरी जातियों का आंकड़ा 29.6% है।
मुस्लिम वर्ग की बात करें तो 16.6 फीसदी दोषी कैदी जेलों में बंद हैं और 18.7 फीसदी अंडर ट्रायल हैं। जबकि, देश में इनकी आबादी 14.2 फीसदी है। वहीं हिंदुओं की बात करें तो करीब 74 फीसदी दोषी जेलों में कैद हैं।
सोशल एक्टिविस्ट और आईआईएम अहमदाबाद की एसोसिएट प्रोफेसर रितिका खेड़ा कहती हैं कि जेलों में दलित, आदिवासी और मुसलमानों की संख्या ज्यादा होने से हम यह नहीं कह सकते कि इन समुदायों में क्राइम ज्यादा है। बल्कि, इससे यह जान पड़ता है कि देश में "रूल आफ लॉ" काफी कमजोर है।
रीतिका के मुताबिक, अंडर ट्रायल में इनकी संख्या ज्यादा इसलिए भी है कि इनके पास जमानत करवाने के लिए वकील नहीं है या पैसा नहीं है। उनकी गरीबी उन्हें जेल में रखती है। जबकि, ऊंची जाति और वर्ग के लोग, दोषी पाए जाने पर भी आसानी से जमानत ले लेते हैं। हाल ही में विकास दुबे, जिसका एनकाउंटर हो गया और जेसिका लाल के हत्यारे, मनु शर्मा को भी रिहा कर दिया गया।
वो कहती हैं कि कई बार आदिवासियों और मुसलमानों को झूठे केसों में भी फसाया जाता है। जैसे कि छत्तीसगढ़ में सोनी सॉरी को गिरफ्तार किया गया और उनके साथ जेल में बदसलूकी की गई। इस तरह के और भी कई उदाहरण हैं।
देश में सबसे ज्यादा दलित कैदी यूपी में हैं। इसके बाद मध्य प्रदेश और पंजाब के जेलों में बंद हैं। वहीं, सबसे ज्यादा आदिवासी कैदी मध्य प्रदेश में हैं और सबसे ज्यादा मुसलमान यूपी की जेलों में बंद हैं।
पांच साल पहले यानी 2015 की बात करें तो उस समय भी दलित और आदिवासी दोषी कैदियों की संख्या लगभग इतनी ही थी। 2015 में 21% दोषी दलित, 13.7% दोषी आदिवासी और 15.8% दोषी मुसलमान जेल में थे। रिपोर्ट के मुताबिक, एससी/एसटी एक्ट के तहत 2019 देशभर में 628 लोग जेल में हैं। सबसे ज्यादा यूपी में 141, मध्यप्रदेश में 111और बिहार में 79 लोग जेल में हैं।
18.3 फीसदी कैदी ही महिला जेलों में हैं
देश में कुल 19 हजार 81 महिला कैदी हैं, इनमें से सिर्फ 18.3 फीसदी यानी 3 हजार 652 ही महिलाओं के लिए बने जेलों में कैद हैं। जबकि, 16 हजार 261 महिलाएं देश की दूसरे जेलों में कैद हैं। देश में कुल महिला जेलों (वुमन जेल) की संख्या 31 है। राजस्थान में सबसे ज्यादा 7 महिला जेल हैं।
2014 से 2019 के बीच महिलाओं के लिए बने जेलों की क्षमता 34.6% बढ़ी है, लेकिन इस दौरान कैदियों की संख्या सिर्फ 21.7% ही बढ़ी है। 2014 में महिलाओं के लिए बने जेलों में 62% महिलाएं कैद थीं, जबकि 2019 में आंकड़ा घटकर 56.1% हो गया।
उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ ये चार ऐसे राज्य हैं, जहां गैर-महिला जेलों में महिला कैदियों की संख्या क्षमता से ज्यादा है। लेकिन, राजस्थान में 7 महिला जेल होने के बाद भी तीन हिस्सा खाली ही है। यही स्थिति तमिलनाडु (5 महिला जेल) और बाकी राज्यों की भी है।
महिला जेल खाली और कॉमन जेलों में ओवरक्राउडिंग क्यों?
अब सवाल उठता है कि महिला जेलों में महिलाओं की संख्या कम क्यों है? जबकि गैर-महिला जेलों में जरूरत से ज्यादा भीड़ है। इस बारे में ओवरक्राउडिंग और जेलों में कैदियों की बढ़ती संख्या को लेकर जेल सुधारक के रूप में काम करने वालीं और तिनका- तिनका की संस्थापक वर्तिका नंदा कहती हैं कि देश में कई राज्यों में महिला जेल नहीं हैं। ऐसे में अगर वहां अपराध दर्ज किया जाता है, तो कैदी वही रखे जाते हैं इसलिए महिला जेलों में इनकी संख्या कम है और कॉमन जेलों में ज्यादा। दूसरी वजह है कि देश में महिला अपराधियों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन उसके मुकाबले महिला जेलों के बढ़ने की रफ्तार धीमी है। इतना ही नहीं उन जेलों में महिला स्टाफ की भी कमी है।
वर्तिका कहती हैं कि एक और सबसे बड़ी वजह ये है कि देश में जहां महिला जेलों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए, वहां कम है। कई जेल ऐसी भी हैं, जो बहुत दूर हैं, वहां कनेक्टिविटी नहीं है। इसलिए हमें जेल बनाते समय यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वह किस जगह पर हो, कहां अपराध ज्यादा हैं, कहां बेहतर कनेक्टिविटी है। सही जगह पर जेल नहीं होने की वजह से ही देश के कई महिला जेलों में कैदियों की संख्या काफी कम है।
एक साल में 3.32 फीसदी बढ़े कैदी
इतना ही नहीं, जेलों में भीड़ भी बढ़ी है, यानी क्षमता से अधिक कैदी बढ़े हैं। 2015 में 100 लोगों के रहने की जगह पर 114 कैदी थे, जबकि 2019 में आंकड़ा 118 हो गया। दिल्ली में यह आंकड़ा 175 है। अगर विदेशी कैदियों की बात करें तो भारत में कुल 5 हजार 608 विदेशी कैदी जेल में हैं। इनमें 4,776 पुरुष और 832 महिला हैं। इसमें से 2,171 दोषी हैं और 2,979 अंडर ट्रायल हैं जबकि 40 बंदी हैं। 2018 के मुकाबले देश में कैदियों की संख्या 3.32 फीसदी बढ़ी है।
वर्तिका का कहना है कि हमारे देश में केसों का निपटरा वक्त पर नहीं होता है, अंडर ट्रायल का मामला जल्द नहीं सुलझता है। कई ऐसे लोग होते हैं, जिनके अपराध की सजा 2 महीने या 6 महीने होनी चाहिए थी, लेकिन उनका लंबा समय जेल में गुजर जाता है। चिंता की बात तो ये है कि इसके लिए कोई जिम्मेदार ही नहीं होता। इसके साथ ही कई लोग ऐसे होते हैं, जो हैबिचुअल ऑफेंडर होते हैं, वो बार- बार अपराध करते हैं और जेल में आते हैं। इससे भी कैदियों की संख्या बढ़ती है।
सबसे ज्यादा गुजरात के जेलों से फरार हुए कैदी
देशभर के जेलों से 2019 में कुल 468 कैदी फरार हुए, जिसमें से 329 ज्यूडिशियल कस्टडी से और 139 पुलिस कस्टडी से फरार हुए। इनमें से 231 को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। गुजरात से सबसे ज्यादा 175 कैदी फरार हुए। हालांकि, सिक्किम, मेघालय, गोवा और जम्मू कश्मीर सहित 11 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से एक भी कैदी फरार नहीं हुए हैं।
2019 में 116 कैदियों ने सुसाइड किया
2019 में जेल में कुल 1 हजार 775 कैदियों की मौत हुई है। इनमें से 1,544 की प्राकृतिक, 165 की अप्राकृतिक और 66 की मौत के कारण पता नहीं चल पाया। रिपोर्ट के मुताबिक, जिन लोगों की प्राकृतिक मौत हुई है, उनमें 1,466 कैदी बीमार थे, 78 कैदियों की मौत ज्यादा उम्र की वजह से भी हुई है। अप्राकृतिक मौत में सबसे ज्यादा मामला सुसाइड का है। 2019 में 116 कैदियों ने सुसाइड किया है। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा कैदियों की मौत हुई है।
वर्तिका नंदा कहती हैं कि ये एक सोशियोलजिकल और लीगल इश्यू है, जिसपर कलेक्टिवली ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब से जेल बनी हैं, तब से इस तरह की घटनाएं हो रही हैं, एक तरह से ये जेलों के स्वभाव का हिस्सा हो गया है, जो ठीक नहीं है। जेल चाहती है कि जो यहां आए, वो जिंदा रहे, लेकिन कैसे जिंदा रहे इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है। कई लोग ऐसे हैं, जिन्होंने अपराध नहीं किया था या उनका ट्रायल जल्दी हो जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें लम्बा वक्त जेल में गुजरना पड़ता है। इससे भी वे डिप्रेशन में आ जाते हैं और ऐसे कदम उठाते हैं। इसलिए ये जरूरी है कि जेल सुधार को लेकर काम किया जाए, सुविधाएं दी जाएं, लाइब्रेरी की व्यवस्था की जाए।
2019 में कुल 121 कैदियों को मौत की सजा दी गई। इनमें यूपी में 27, मध्य प्रदेश में 17 और कर्नाटक में 14 कैदियों को मौत की सजा दी गई। जबकि, 77 हजार 158 को आजीवन कारावास की सजा और 20 हजार 763 को 10 साल से ज्यादा की सजा दी गई।
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 7 कैदी पर एक जेल स्टाफ है। सबसे ज्यादा झारखंड में 19 कैदी पर एक स्टाफ है। वहीं यूपी में 17, असम में 11, छत्तीसगढ़ में 10, बिहार में 8, मणिपुर-अरुणाचल में 1-1 कैदी पर एक स्टाफ है।
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17 साल उम्र थी, गर्मियों वाली टीशर्ट और हाफ पैंट में लद्दाख के लिए निकल गया, जोजिला तक पहुंचे तो जूते फट चुके थे, मजदूरों के टेंट में रात गुजारी
पिछले तीन महीनों में देश में सबसे ज्यादा चर्चा लद्दाख की हुई है। दिल्ली से लद्दाख की दूरी 1 हजार किमी से ज्यादा है। आमतौर पर बाइक पर लद्दाख जाने वाले बहुतेरे हैं। कइयों ने मनाली से श्रीनगर का सफर साइकिल पर भी किया है। लेकिन, पैदल शायद किसी ने नहीं।
ये कहानी है दिल्ली के अशोक उप्पल की, जो एक नहीं, बल्कि 2 बार पैदल लद्दाख जा चुके हैं। उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी...
15 से 25 की उम्र, वो उम्र जब दिल में आता है, कुछ भी कर जाओ। 1986 की बात है। कांवड़ यात्रा के लिए मैं पहली बार 200 किमी पैदल चलकर दिल्ली से हरिद्वार गया था। ये पैदल पहली यात्रा थी। इसके बाद वैष्णोदेवी गया। वैष्णोदेवी में बर्फ देखकर हम दोस्त चिल्लाने लगे तो वहां लोगों ने बोला ये क्या कोई बर्फ है? बर्फ ही देखना है तो लद्दाख जाओ। वहां बर्फ से रास्ते बंद रहते हैं।
हमने तय किया, 1987 में कोशिश करेंगे पैदल लद्दाख जाने की। मई में छुटि्टयां थी तो गर्मियों के कपड़े, टीशर्ट और शॉर्ट्स में ही हम तीन दोस्त लद्दाख के लिए निकल गए... पैदल। जम्मू से श्रीनगर तक तो ज्यादा दिक्कत नहीं आई। हम एक रात श्रीनगर में रुके और जब अगली रात सोनमर्ग पहुंचे तो ठंड लगने लगी। हमारे पास कपड़े वही गर्मियों वाले थे। हम चलते-चलते जोजिला पहुंचे तो हमारे जूते फट चुके थे। कीचड़ में पैर धंसे तो जूतों के सोल वहीं रह गए और पैर बाहर आ गए। वहां से हमने नंगे पैर चलना शुरू किया। जैसे-तैसे द्रास तक पहुंचे।
जब जोजिला से नीचे उतरे तो सड़क बनाने वाले मजदूरों के कैम्प में रुकना पड़ा
दिल्ली से अमरनाथ तक 7 बार पैदल जा चुका हूं। हम दिल्ली से जम्मू 10 दिन में पैदल पहुंच जाते थे। फिर अगले 7-8 दिन में जम्मू से श्रीनगर। फिर श्रीनगर से करगिल तक 10 दिन में पहुंचा था। पहली बार जब पैदल लद्दाख के लिए निकला, तो करगिल तक जा पाया था, उसमें 28 दिन लग गए थे। हम जब दिल्ली से जम्मू गए तो रास्ते में ढाबे, धर्मशाला, गेस्ट हाउस में रुक जाते थे। जम्मू से श्रीनगर के बीच भी ये सब ठिकाने मिल ही जाते थे।
लेकिन, जब श्रीनगर से लेह के लिए निकले तो एक रात दिक्कत आई। सोनमर्ग से जोजिला की चढ़ाई की और जब नीचे उतरे तो सड़क बनाने वाले मजदूरों के कैम्प में रुकना पड़ा था। रात बड़ी मुश्किल में काटी। पैर गल चुके थे, छाले थे, भयानक ठंड थी और पैरों में स्लीपर भी नहीं थी। तबीयत खराब होने लगी। करगिल तक पहुंच गए थे। वहां ठहरने के लिए एक गेस्ट हाउस भी मिल गया।
हम ये कोशिश करते थे कि सुबह 4 बजे चलना शुरू कर दें और शाम होते-होते किसी गांव या कस्बे तक जरूर पहुंच जाएं। जब शाम होने लगती तो देख लेते कि कितनी दूरी पर अगला गांव है। हमारा रुकना, खाना और ये पूरी यात्रा बहुत सस्ती होती थी। 28 दिन की दिल्ली से लद्दाख की यात्रा हम तीन लोगों ने 15 हजार रुपए में पूरी कर ली थी।
उम्र तब 17 साल थी, जब पहली बार पैदल लद्दाख गया। अब 50 प्लस हो चुका हूं। मन को जो अच्छा लगा, वो करने लगा। तब फेसबुक, इंस्टा का जमाना नहीं था। 2011 में फेसबुक पर आया और 80 से ज्यादा ट्रैवलिंग ग्रुप का हिस्सा बन गया। लेकिन, भीड़ से दूर भागता हूं, इसलिए सुनसान इलाकों में अकेले ट्रैवल करता हूं।
दिल्ली के कालका जी मार्केट में फुटवेयर का शोरूम है। फैमिली में पत्नी है, बेटी मास्टर्स कर रही है, बेटे ने 12वीं किया है। दोस्तों के साथ या फिर अकेले बाइक पर एडवेंचर ट्रिप पर जाता हूं और फैमिली के साथ लग्जरी ट्रिप पर। बेटा बोलता भी है कि लाइसेंस बनवा दो, मैं भी आपके साथ बाइक पर लद्दाख जाऊंगा।
मैंने ज्यादातर धार्मिक यात्राएं की हैं। 1986 से 2000 तक धार्मिक यात्राओं पर ही जाते रहे, क्योंकि ग्रुप ही ऐसा था। जो दो दोस्त इन यात्राओं पर साथ जाते थे, उन्होंने एक बार ऐसी ही एक ट्रिप पर गलतफहमी के चलते मार-पीट की और मुझे खाई में फेंक दिया। किस्मत अच्छी थी इसलिए जिंदा बच गया। वापस आकर उन दोस्तों पर केस किया था, फिर समझौते हो गए। पिछले 20 साल से उनसे कोई संपर्क नहीं। अब उस घटना को याद नहीं करना चाहता। इस हादसे के चलते 2000 से 2004 तक चार साल सोलो ट्रैवल किया। इसका मेरे दिमाग पर गहरा असर हुआ, मैं लोगों से बात ही नहीं करता था, दोस्त बनाना भी बंद कर दिया।
2011 में फेसबुक पर आया। 2012 से फिर बाइकिंग शुरू की। समय बीता तो दोस्त बनाना भी शुरू किया। लोगों से मिलने लगा। बात करने लगा। लेकिन, अब पैदल यात्राएं बंद हैं। 2017 में आखिरी बार गोरखपुर से मस्तांग पैदल गया था, 515 किमी अकेले। ये यात्रा 11 दिन में पूरी हुई थी। 28 साल पहले केदारनाथ में एक बाबा ने कहा था कि मस्तांग की यात्रा जरूर करना। वहां विष्णु जी का मंदिर है, इसलिए मैंने उसे पूरा किया। इसके लिए गोरखपुर तक ट्रेन से गया और आगे पैदल।
बाइक से यात्राएं तो 1987 से कर रहा हूं, लेकिन प्रोफेशनल राइडिंग पिछले 7-8 सालों से ही शुरू की है। बाइक से ही तीन बार लद्दाख, एक बार स्पीति, हिमाचल, उत्तराखंड, राजस्थान और गुजरात को नापा है। अब बस नॉर्थ ईस्ट जाना चाहता हूं, लेकिन वहां की यात्रा एक हफ्ते में पूरी नहीं होती और बिजनेस एक हफ्ते से ज्यादा छुट्टी नहीं लेने देता।
ट्रैवल पैशन है। 2 महीने हो जाएं, कहीं न जाऊं तो परेशान हो जाता हूं। फिर चाहे बाइक हो या फैमिली के साथ फ्लाइट से। लगता है कि लोगों से मिलूं, लोकल खाना और जगह देख सकूं। ट्रैवल की बदौलत ही हमेशा खुश रहता हूं, काम कम हो, बिजनेस में नुकसान हो। भले फैमिली वालों ने ज्यादा पैसे कमा लिए, वो नोट गिनते रहते हैं, सगे भाई कई गुना आगे हैं, लेकिन मुझे बुरा नहीं लगा। क्योंकि, ये पैसा यहीं रह जाना है। मेरी फैमिली कभी ये शिकायत नहीं करती कि आप हमें घुमाते नहीं। जो कमाएगा वो खर्च नहीं करेगा, लोग सिर्फ कमाकर जोड़ रहे हैं। मैं एक्सपीरिएंस कमा रहा हूं।
एक और बात, मैं टूर के लिए एजेंट से पैकेज कभी नहीं लेता। 25 साल शादी के हुए थे तो कुछ साल पहले कश्मीर का पैकेज लिया था। कभी प्लान भी नहीं करता, बस निकल पड़ता हूं। जहां मन किया वहां रुक गया। फैमिली को भी साल में दो ट्रिप करवाता ही हूं और 1-2 मेरे सोलो ट्रिप। यानी हर 2-3 महीने में एक ट्रिप। कभी दोस्त, कभी फैमिली, कभी सोलो।
जब पैदल चलता था तब भी और अभी भी। हमेशा से फिटनेस फ्रीक रहा हूं। डेली वर्कआउट करता हूं, डेढ़ घंटा। 30-40 मिनट वॉक, 40-45 मिनट एक्सरसाइज करता हूं। खाने-पीने का चटोरा हूं तो बहुत खाता हूं। ऑनलाइन खाने और ट्रैवल वीडियो ही देखता रहता हूं।
4 सबसे खतरनाक हादसे, कश्मीर में ब्लास्ट हुआ, पंजाब में उग्रवादियों ने पकड़ा...
1. कश्मीर : जहां सामने ब्लास्ट हुआ शर्ट जल गया
23 बार तो मैं कश्मीर ही जा चुका हूं। 1988 के बाद 7 साल कश्मीर नहीं गया। 1988 में जब मैं श्रीनगर में था तो मेरे सामने ब्लास्ट हुआ, मेरी शर्ट में आग लग गई। मरते- मरते बचा मैं। तब वहां जाने से ही डर गया था। लेकिन, 1995 से फिर जाने लगा। वैसे ये मेरा सबसे खतरनाक ट्रिप था।
2. पंजाब : मनाली जा रहे थे, उग्रवादियों ने पकड़ लिया
एक और ट्रिप शायद इतना ही खतरनाक था। हम मनाली से लेह जा रहे थे। 1988 की बात है। पंजाब में आतंकवाद था, अंबाला क्रॉस किया तो सामने उग्रवादी खड़े थे, रोक लिया और बैठा लिया। पूछने लगे - कहां जा रहे हो? हमने कहा हरमिंदर साहब दर्शन करने जा रहे हैं। तब हम बस 18 साल के थे। बच्चे हैं, धार्मिक हैं ये सोचकर शायद उन्होंने हमें जाने दिया।
3. गंगोत्री : ग्लेशियर में रास्ता भटक गए, तीन दिन बर्फ पिघलाकर पानी पिया
1989 में गंगोत्री से गोमुख जाना था। दुकानदार कहने लगा कि आप तपोवन भी होकर आना, वहां साधु-संत तपस्या कर रहे हैं और गुफा है। शायद हिप्नोटाइज हो गए हैं, वो कहने लगा शेर और चीते घूमते हैं, समाधियां हैं, आत्माएं तपस्या करती हैं। हम जाने लगे तो सोचा गाइड करते हैं। लेकिन, तब विदेशी ही गाइड करते थे, इसलिए हम खुद निकल गए। शाम को 4 बजे तपोवन से निकले तो रास्ता भटक गए, पूरी रात ग्लेशियर पर बैठकर बिताई।
एक चादर में चिपक कर सोए तीन दोस्त। हमेशा ड्रायफ्रूट बिस्कुट लेकर चलते थे, वही खाए। सुबह बरसात होने लगी, पूरे दिन रास्ता नहीं मिला। बर्फ चूसकर पानी पिया, उससे गले में जख्म हो गए। दूसरी रात भी चट्टान पर लेटकर बिताई। तीसरे दिन हम लाश ही होने वाले थे। तबीयत बिगड़ गई थी, चील और कौए नजर आने लगे थे। थोड़ी धूप निकली तो हमने हिम्मत जुटाई। फिर एक बकरी चराने वाला हमें 3 घंटे चलाकर लाया।
4. अमरनाथ : जब बर्फीले तूफान में फंस गए, टेंट और बिस्तर सब पानी में बह गए
1995 में अमरनाथ में ट्रैजेडी में फंस गया था। बारिश हो रही थी, पंचतरणी में। पहाड़ी से पानी टेंट में बहकर आने लगा। सामान, कंबल और बिस्तर गीले हो गए। अगले दिन सुबह 9 बजे तक बरसात नहीं रुकी। सोचने लगे चलो वापस चलते हैं, अगले साल ट्राय करेंगे। बात कर ही रहे थे कि बर्फबारी शुरू हो गई। आधा किमी चले ही थे कि बर्फीला तूफान आया। घोड़े वाले भाग गए, लंगर बंद हो गए, 200 लोग एक-दूसरे को पकड़कर खड़े थे। घुटन में मरने वाले थे। हम चल दिए, लेकिन जो लोग वहां बैठे थे, उनकी वहीं मौत हो गई। लोगों की लाशें गिर रहीं थीं। मेरे एक ही पैर में जूता था। और तीन बैग उठा रखे थे। बिना रुके चलता रहा। बमुश्किल जान बची।
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क्या आज से शुरू हो रही JEE के एग्जाम सेंटरों में बाढ़ का पानी भरा है? इस दावे से वायरल की जा रही फोटो का सच जानिए
क्या हो रहा वायरल : सोशल मीडिया पर कुछ फोटो वायरल हो रही हैं। फोटो में भारी बारिश के चलते सड़कों और घरों में हुआ जलभराव दिख रहा है। दावा किया जा रहा है कि ये फोटो नीट और जेईई परीक्षा केंद्रों की हैं। फोटो शेयर करते हुए सोशल मीडिया पर सरकार से सवाल पूछा जा रहा है कि जब परीक्षा केंद्रों की यह हालत है, तो फिर परीक्षा कैसे आयोजित होगी ?
देश भर के इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन के लिए होने वाली JEE मेन्स मंगलवार से शुरू हो रही है। यह परीक्षा 6 सितंबर तक होनी है। वहीं मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली NEET 13 सितंबर को होगी।
कोरोना संक्रमण के बीच हो रही इन दो परीक्षाओं को लेकर जहां पैरेंट्स परेशान हैं। वहीं, छात्रों ने लगातार परीक्षा पोस्टपोन करने की सरकार से मांग की थी। हालांकि, इसी बीच सोशल मीडिया पर इन परीक्षाओं को लेकर कई भ्रामक दावे भी किए जा रहे हैं।
चार फोटो वायरल हो रही हैं
1. पहली फोटो
2.दूसरी फोटो
3. तीसरी फोटो
4. चौथी फोटो
फोटो के साथ वायरल हो रहा मैसेज
This is the condition of examination centers and govt. wants to conduct exam's
हिंदी अनुवाद - परीक्षा केंद्रों की यह हालत है और सरकार परीक्षा आयोजित कराना चाहती है।
सोशल मीडिया पर किए जा रहे दावे
This is the condition of examination centres and govt. wants to conduct exam's . #SpeakUpForStudentSafety#neetJEE2020 #PostponeNEET_JEEinCovid#StudentLivesMatter #Mann_Ki_Nahi_Student_Ki_Baat pic.twitter.com/UHICwMxFvH
— Vishwas Prajapati (@Vishwas_IYC) August 30, 2020
This is the condition of examination centres and govt. wants to conduct exam's #SpeakUpForStudentSafety @narendramodi @DrRPNishank @RahulGandhi pic.twitter.com/j6fGDtr5bk
— Nikhil (@nikhilp3000) August 28, 2020
This is the condition of examination centres and govt. wants to conduct exam's #SpeakUpForStudentSafety pic.twitter.com/sytUImK6Cx
— vivek yadav (@vivekya20038271) August 28, 2020
फैक्ट चेक पड़ताल
नीट और जेईई के परीक्षा केंद्रों का बताकर चार फोटो वायरल हो रही हैं। हमने एक-एक करके हर फोटो की जांच शुरू की, तो बिल्कुल अलग ही सच्चाई निकल कर आई।
पहली फोटो का सच
गूगल पर फोटो को रिवर्स सर्च करने से कुछ मीडिया रिपोर्ट सामने आईं। जिनसे पता चलता है कि फोटो इलाहाबाद में हुई बारिश का है। फोटो में जलमग्न दिख रहा एमएल कॉन्वेंट स्कूल इलाहाबाद का ही है। न्यूज वेबसाइट पर उल्लेख नहीं है कि खबर किस समय की है। लेकिन, खबर में प्रयागराज का पुराना नाम ‘इलाहाबाद’ लिखा हुआ है।
उत्तरप्रदेश सरकार ने अक्टूबर, 2018 में इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज रखे जाने को मंजूरी दी थी। तबसे मीडिया रिपोर्ट्स में भी शहर का नाम प्रयागराज ही लिखा जाता है। स्पष्ट है कि वायरल हो रही पहली फोटो दो साल से भी ज्यादा पुरानी है और इसका नीट-जेईई परीक्षा से कोई संबंध नहीं है।
दूसरी फोटो का सच
न्यूज-18 की वेबसाइट पर तीन साल पुरानी एक फोटो स्टोरी है। स्टोरी में 29 अगस्त, 2017 की देश भर की बड़ी घटनाओं की तस्वीरें हैं। यहां हमें वो दूसरी फोटो मिली। जिसे नीट-जेईई परीक्षा केंद्रों का बताया जा रहा है। असल में ये फोटो मुंबई में आई बाढ़ की है।
तीसरी फोटो का सच
दैनिक जागरण की वेबसाइट पर 4 अगस्त, 2019 की खबर से पता चलता है कि ये फोटो पिछले साल हरिद्वार में आई बाढ़ का है।
चौथी फोटो का सच
चौथी फोेटो को रिवर्स सर्च करने पर भी दैनिक जागरण की ही एक खबर हमारे सामने आई। 9 जुलाई, 2019 की इस खबर में फोटो को पटना में हुई बारिश का बताया गया है।
निष्कर्ष: JEE-NEET के परीक्षा केंद्रों का बताकर शेयर की जा रही तस्वीरें यूपी, बिहार, उत्तराखंड और महाराष्ट्र में आई बाढ़ की हैं। पुरानी तस्वीरों के आधार पर भ्रामक दावा किया जा रहा है कि परीक्षा केंद्रों में बाढ़ का पानी भरा है।
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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब नहीं, बल्कि अभिभावक और एक दोस्त के चले जाने से शोक में डूब गया मिराटी गांव
एक अनजानी आशंका लोगों को परेशान कर रही थी, लेकिन लोगों ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था। उनको शायद किसी चमत्कार की उम्मीद थी। लेकिन, सोमवार सुबह जब प्रणब मुखर्जी की हालत बिगड़ने की जानकारी मिली तो इन लोगों में निराशा फैलने लगी। शाम को प्रणब मुखर्जी के निधन की खबर आई। इसके बाद पूर्व राष्ट्रपति के बीरभूम जिले के मिराटी गांव में मातम और सन्नाटा पसर गया।
इस गांव के लोग एक पूर्व राष्ट्रपति नहीं, बल्कि एक अभिभावक और एक ऐसे मित्र के निधन का शोक मना रहे हैं जो आधी रात को भी सबकी समस्याएं सुन कर उनकी मदद के लिए तैयार रहता था। प्रणब का जन्म इसी गांव में हुआ था।
स्वस्थ होने की कामना के लिए यज्ञ
प्रणब मुखर्जी के बीमार होने के बाद इन दोनों गांवों में लोगों ने उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना के साथ यज्ञ आयोजित किया था। प्रणब के गांव में रहने वाले प्राथमिक स्कूल के शिक्षक कनिष्क चटर्जी कहते हैं, "उनके बीमार होने की खबर मिलने के बाद ही मन खराब हो गया था। लेकिन, हमें उम्मीद थी कि वह मौत को मात देकर लौट आएंगे। ऐसा हो नहीं सका।"
कनिष्क कहते हैं- देश के शीर्ष पद पर पहुंचने के बावजूद प्रणब अपनी जड़ों को नहीं भूले। जब भी मौका मिलता, वे यहां जरूर आते। उनको देख कर कहीं से भी नहीं लगता था कि यह व्यक्ति देश का राष्ट्रपति है। वे ज्यादातर लोगों को नाम से पहचानते थे।
भारत रत्न मिला तो गांव ने खुशियां मनाईं
पिछले साल अगस्त में प्रणब को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किया गया। गांव में खुशियां मनाई गईं। पूर्व राष्ट्रपति के करीबी रहे प्रियरंजन घोष कहते हैं, “हम बीते साल अपने गांव के इस लाल के सम्मान से बेहद खुश हुए थे। तब कौन जानता था कि महज एक साल के भीतर वे हमसे हमेशा के लिए जुदा हो जाएंगे। उनकी वजह से हमारे गांव का नाम विदेश तक लोग जानते थे।”
प्रणब जैसा दोस्त मिलना मुश्किल
केंद्रीय मंत्री रहते प्रणब हर साल दुर्गापूजा के दौरान अपने घर में पूजा करते थे। षष्ठी से लेकर दशमी तक। बाद में राष्ट्रपति बनने पर भी यह सिलसिला 2015 तक जारी रहा था। उनके घर चालीस साल से दुर्गापूजा का आयोजन होता रहा। मुखर्जी इस लंबे अरसे में सिर्फ दो बार ही गांव नहीं आ सके थे। अब उनके निधन से गांव में होने वाली दुर्गापूजा भी अनिश्चित हो गई है।
प्रणब के बचपन के साथी बलदेव राय और नीहार रंजन बनर्जी कहते हैं, “प्रणब जैसा दोस्त होना मुश्किल है। उनको अपने पद का जरा भी अभिमान नहीं था। गांव आने पर हमसे उसी तरह मिलते-बोलते थे, जैसे हम बचपन में साथ खेलते और बात करते थे।”
प्रणब के पारिवारिक मित्र रहे रवि चटर्जी बताते हैं- हमने उनके स्वस्थ होने की कामना के साथ गांव में महामृत्युंजय जाप कराया था। हमें चमत्कार की उम्मीद थी। अफसोस...ऐसा नहीं हो सका।
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3. 13 तस्वीरों में प्रणब मुखर्जी:करियर की शुरुआत क्लर्क के तौर पर की थी
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